Saturday, February 2, 2019

             नाड़ी दोष का सही तथ्य


               नदी दोष: सही तथ्य
भावी दम्पति के स्वभाव एक दूसरे के कितने अनुकूल या समान होंगे, यह जानने के लिये अष्टकूट मेलापक का सहारा लिया जाता है।

कूट का अर्थ समूह या बिखरे सामानों को मिलाकर एक स्थान पर रखना भी होता है।अष्ट का अर्थ आठ होता है। चूंकि यह मेलापक आठ घटकों पर आधारित है,अतः इसे अष्टकूट कहते हैं।
पति पत्नी के स्वभाव समान होने पर परस्पर प्रीति या आपस में मेल रहता है।शास्त्रकार कहते हैं-

सेव्य सेवकयो रेवं दम्पत्योर्वा कयोरपि।
द्वयोर्यत्र मिथः प्रितिस्तत्रैव सुखसम्पदः।।

अर्थात जहां मालिक और नौकर में, पति और पत्नी में,अथवा किन्हीं भी दो सम्मिलित व्यवहार व्यवहार करने वाले व्यक्तियों में परस्पर प्रेम रहता है, वहीं सब प्रकार की सुख समृद्धि रहती है।
प्रेम स्वभाव की समानता पर निर्भर है।स्वभाव मुख्य रूप से मन और मनुष्य के गुणों पर निर्भर है।अतः इस मेलापक का मुख्य आधार जन्म चंद्रमा की राशि एवं नक्षत्र हैं।जिस घटक में अनुकलता न हो तो उससे जुड़े परिहार(cancellation or alternative solution) को देखा जाता है।परिहार उप्लब्ध होने पर उसे स्वीकार कर लिया जाता है।

अष्टकूल मेलापक में दो घटक योनि एवं नाड़ी शारीरिक अनुकूलता(physical compatibilty) से भी सम्बन्ध रखते हैं।यहां मैं सिर्फ नाड़ी की चर्चा कर रहा हूँ।

अष्टकूट मेलापक में परंपरा में प्रचलित निम्न वचन को प्रायः ध्यान में रखा जाता है या रखना चाहिये।

नाड़ी दोषो हि विप्राणां वर्णदोषस्तु भूभुजाम्।
वैश्यानां गण दोषस्तु शुद्राणां योनि दूषणम्।।

अर्थात ब्राह्मणों में नाड़ी दोष, क्षत्रियों में वर्ण दोष,वैश्यों में गण दोष तथा शूद्रों में योनि दोष देखना चाहिये।

यहां जो वर्णों का संदर्भ लिया गया है वह राशियों से है,जबकि कई पंडित प्रचलन प्रयुक्त जातियों से इन्हें जोड़ते हैं जो वस्तुतः गलत है।नाड़ी रक्त संचार या शरीर के संकेतों के प्रवाह का माध्यम है।दरअसल नाड़ी खून के प्रवाह को नियंत्रित करती है।चूंकि रक्त जल तत्व से संबंधित है  और ब्राह्मण राशियां भी जल तत्व की राशियां हैं, अतः नाड़ी का ब्राह्मण राशियों से संबंध होना तर्कयुक्त है।इसी कारण प्रथम कूट वर्ण रखा गया है।सभी 12 राशियों के वर्ण उनके तत्व गुण के साथ नीचे दिये जा रहे है।

1) मेष, सिंह , धनु - क्षत्रिय(अग्नि तत्व)

2) वृष,कन्या, मकर- वैश्य(पृथिवी तत्व)

3) मिथुन, तुला, कुम्भ- शुद्र(वायु तत्व)

4) कर्क, वृश्चिक,मीन- ब्राह्मण(जल तत्व)

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लेखक:नरेश चंद्र

Tuesday, January 29, 2019



                     Badhakar ad a Tool


Badhaka as a Tool

As per Parashar, the concept of "Badhaka houses" is related to Rashi dasha which later,I think,was extended to Nakshatra dasha mainly to Vimshottari dasha by others. However, there is a very clear logic in this concept as adopted by Parashar.Let us first understand what are badhaka houses. Although in BPHS, Badhaka houses are mentioned only for Moveable (Char) signs, yet it may be assumed that it would have been there for all three groups of signs and got omited  for (Fixed) Sthira and Dual(Dwiswabhava) signs over long run of time.As per the matter available in other classics, the complete definition is as under.

"The 11th house ,9thouse and 7th house are Badhaka places for the Moveable, fixed and dual signs respectively."

If from a Rashi dasha, Badhaka place is afflicted by malefics without any banefic association or aspect , dasha of such sign gives great tragedy,grief and confinement etc.See the 11th house is a house of gain, the 9th house is luck and the 7th house is also related to one's Karma being the 10th from the 10th house.So naturally affliction to these places is not conducive to beneficial results.Mrs Indira Gandhi was shot dead during her Char dasha of Leo sign.The 9th house (Aries sign) from Leo is aspected by Mars,Sun and Mercury. All these are malefics including Mercury which is associated with Sun in her horoscope.

According to Jataka Parijat

क्रमाच्चरागद्विशरीरभानामुपान्तयधर्मस्मरगास्तदीशः।
खरेशमांदिस्थितराशिनाथा ह्यतीव बाधकरस्वेचराः स्युः।।
         --- (Chapter-II,Shlok-48)
अर्थात् चर राशि से 11वीं, स्थिर राशि से 9वीं तथा द्विस्वभाव राशि से 7वीं राशि में स्थित ग्रह या उनके स्वामी ग्रह यदि खर राशि या मांदि स्थित राशि के स्वामी हों तो भावों के बाधक होते हैं।
लग्न से से 22वां द्रेष्काण खर कहलाता है।
meaning that in the case of moveable , immoveable and dual signs ,planets occupying respectively the 11th,9th and 7th from them or their Lords are Badhaka (troublesome) if they happen to own at the same time the houses occupied by the Lord of Khara or Mandi.
The 22nd dreshkon from the Lagn is called Khar.

What are the results that a Badhaka specifically is likely to give? According to Shlok- 30, chapter-18 of the same text:

बाधा स्थानपतद्युतग्रह दशा शोकादिरोगप्रदा
ताकेन्द्रस्थदशापहारसमये दुःख विदेशाटनम्।

अर्थात् बाधा स्थान के स्वामी या उससे युत ग्रह की दशा शोक,रोग आदि देने वाली होती है।बाधा स्थान से केंद्र भावों में स्थित ग्रह की दशा-अंतर्दशा कष्टप्रद एवं विदेश यात्रा कराने वाली होती है।
Meaning, tha dasha period of a planet owning a Badhaka places or combined with it leads to disease,distress and other such evils.During the Dasha and Bhukti of a planet occupying a Kendra from the Badhaka places, sorrow and foreign travel will be experienced.

If we closely look into the description of concept of badhaka ad described in BPHS, probably any house can suffer due to badhaka if the badhaka sign corresponding to that particular house is afflicted.In many affliction to badhakar sign due to aspect of malefic also have been found to tend the problem to the house concerned.Even affliction to trikon signs of badhaka places have been found trouble to the house concerned.

However, what must be understood is that Badhakar by himself does not generate adverse results.If the chart has basic afflictions and the Badhaka also focuses on them,the afflictions tend to get aggravated.

Although every chart has a badhaka as per its conceptual definition,yet every Badhaka can not be considered as Badhana unless specific malefic condtionds as described above exist in the chart.

Further ,even though the basic role of a Badhakar is subtle ,yet it can act as a catalyst or abettor of a basic affliction.So to that extent,it's role is limited and active only under certain circumstances in the birth chart.
                                  
                                   Writer:  Naresh chandra

Thursday, January 3, 2019

 स्वयं ही जानिए अपने ग्रहो के दोष एवं उनके उपाय

 स्वयं ही जानिए अपने गृह के दोष एवं उनके उपाय



अपना ग्रह दोष स्वयं पहचाने और उपाय करें
यह उन लोगों के लिए नहीं है, जो ज्योतिष पर विश्वास नहीं करते। भाग्य और पुरुषार्थ का एक – दूसरे से सम्बन्ध होता है। इन दोनों में से अकेले-अकेले कोई फलित नहीं होता; यही वैज्ञानिक सत्य है। कर्मफल दर्शन का सत्य सापेक्ष है। एक ही वृक्ष के तीन बीज तीन अलग-अलग परिस्थितियों स्थानों पर उत्पन्न होते है; यह भाग्य है और अपनी परिस्थियों में जिन्दा रहने का संघर्ष पुरुषार्थ। यह एक जटिल विषय है और इस पर मैं कोई बहस नहीं चाहता। जिसे मानना है, मने; न मानना है;न माने। मेरा उद्देश्य किसी विषय पर मत का प्रचार करना नहीं है। ये सामान्य लक्षण और उपाय है; तत्काल राहत के लिए।
सूर्य विकार – यह दो प्रकार से होता है। एक में यह बाधित हो जाता है, दूसरे में प्रखर।
पहले में आँखों में पानी, सोते समय मुंह से लार गिरना, निवास में सूर्य की रोशनी बाधित होना, नमक खाने की इच्छा तेज हो जाना आदि लक्षण प्रकट होते है। इसमें मन सुस्त रहता है।
उपाय – तुलसी में जल दें और पांच पत्ते प्रतिदिन सुबह पांच काली मिर्च के साथ चबा कर पानी पियें। घर में, शरीर पर , ऑफिस में ताम्बा धारण करें। ताम्बे के पात्र में रखा जल पीयें। मदार की माला या बाजूबंद पहने।
दूसरे में क्रोध अधिक आता है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, अति तीव्रता , घर में धुप की प्रखरता, नेत्रों में गर्मी, शरीर में गर्मी, कलह, झगड़े, विवाद होते हैं। अधिक नमक पसंद नहीं होता। बन्दर का उपद्रव होता है।
उपाय – शिव का मंत्र जपें। शिवलिंग पर जल चढ़ाएं। तीन पत्तों वाले तीन बेल पत्र का सेवन करें। चाँदी पहने, घर में चाँदी स्थापित करें। सिरहाने में पानी रखें। दक्षिण का दरवाजा और उत्तर सिर करके सोना अशुभ है। गर्म पदार्थ मसाले आदि का सेवन न करें। कोल्ड ड्रिंक और फास्टफूड न लें। स्फटिक का माला पहने। चाँदी के मनकों एवं मोती की माला भी प्रशस्त है।
चन्द्रमा विकार
यह भी दो प्रकार से विकृत होता है।
पहले में जल स्रोत सूखते है, पम्प खराब होता है, सुस्ती रहती है, बहुत नींद आती है। शरीर या हाथ-पैर ठंडे रहते है। चाँदी गुम होता है। माता बीमार पड़ती है। दूध पिने की इच्छा होती है। मानसिक तनाव, चिंता, शोक होता है। आमदनी घटती है।
उपाय – सूर्य के दूसरे हिस्से का उपाय करें।
दूसरे में छत टपकता है, बाढ़ आती है, घर में पानी के नलके की टोंटी टूटती है, पानी नियंत्रित नहीं होता, बिमारी आदि पर निरर्थक व्यय होता है। रक्त विकार और फेफड़े का विकार होता है। दूध बिखरता है। माता शोक में पड़ती है।
उपाय – दूर्गा जी के मन्त्र का जप करें। कन्या भोजन करायें। छत-नलका आदि ठीक काराएं। पानी-दूध की क्षति को रोकें। मन्दिर में सफ़ेद कपडे, दूध या चाँदी दान करें। आज्ञा चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें। सोना पहने। प्राणायाम करें। हल्दी की माला पहने और आज्ञा चक्र पर तिलक लगायें।
मंगल विकार
यह भी दो प्रकार से बाधित होता है –
पहले में आलस्य, क्षुब्धता, तनाव, खींज से भरा क्रोध, दांत किटकीटाना, गुस्से में सामान तोड़ देना, अपशब्द बकना, मार-पीत, कलह, ईर्ष्या, आत्मा को जला देने वाले ईर्ष्या से भरेवचन, विवाद में पराजय, पुलिस या अपराधियों का भय होता है।
उपाय – हनुमान जी की पूजा करें, मन्त्र जपें, प्राणायाम करें। लाल कपडे, मूंगा, ताम्बा प्रयुक्त करें। लाल रक्त कणों को बढ़ाने वाले भोजन अक्रें। घर में एक ताम्बे के पात्र में सिन्दूर और कुमकुम भर कर रखें। सूर्या नमस्कार करें। प्रातः कालीन सूर्या का ध्यान लगाना शुभ होगा। मूंगे की माला पहने। मीठा खाएं (गुड/शहद)।
दूसरे में आक्रामक क्रोध, मारपीट कर लेना, गन्दी गालियाँ बकना, क्रूरता की हद तक किसी पर बल प्रयोग कर देना, हाई ब्लड प्रेशर, सिर-नेत्र – शरीर में गर्मी, अत्यधिक कामभाव और जीवन साथी को शारीरिक-मानसिक यंत्रणा देना होता है।
उपाय – सूर्य में दिए दूसरे हिस्से का उपाय करें।
बुध विकार – यह भी दो प्रकार से बाधित होता है-
पहले में गला फँसना, आवाज़ खराब होना, शरीर में बिमारी, शिक्षा में व्यवधान, लड़की की तरफ से (बहन-बुआ भी) परेशानी, प्रेम सम्बन्ध में बाधा, किताब के पन्ने फटना, आवाज वाले एल्क्ट्रोनिक इंस्ट्रूमेंट का खराब होना, आदि लक्षण प्रकट होते है।
उपाय – दूर्गा जी के मंत्र का जप करें। कन्या भोजन करायें। लड़कियों को मीठा खिलायें। पन्ना पहने। हरा कपड़ा और हरे मनकों की माला पहने। अपामार्ग के भस्म का सेवन करें ।
दूसरे में बहुत बोलना, मीन-मेख निकालना, कटु बोलना, जल्दीबाजी में निर्णय लेना, दूसरों को अपनी बातों से मोड़कर अपना काम निकालने की प्रवृत्ति, अपनी बुद्धि का अतिरिक्त दावा, पीता से कलह; नास्तिकता, साधू-पंडित-देवी-देवता-परम्परा का मजाक उडाना, बुद्धिवाद का अहंकार आदि प्रगट होते हैं।
उपाय – उपाय बृहस्पति का है। ‘ॐ मन्त्र’, गणेश या रूद्र देवता, आज्ञाचक्र ध्यान केंद्र और बुजुर्गों का सम्मान-सलाह लेना- आशीर्वाद लेना, पीपल में जल चढ़ाना आदि अहि। म्न्दरी में जाना , 15 मिनट रहना। सोना पहनना शुभ है। गंडे-ताबीज-खाली बर्त्तन-बहुत तेज आवाज वाले यंत्र, ढोल-करताल-हरमुनियम बजाना , मंदिर में घंटी बजाना, घर में घंटी लटकाना बहुत अशुभ है। माला हल्दी एवं रुद्राक्ष की पहने।
बृहस्पति विकार –
पहले में श्वांस की बिमारी, श्वांस कष्ट, उत्साह में कमी, आत्मबल में कमी, पिता से सम्बन्ध टूटना, गैस्टिक, वाट का दर्द, शरीर की त्वचा का ड्राई होना, सिर दर्द, निर्णय में अनिश्चितता , रात की नींद बाधित, चिंता-शोक आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
उपाय – बुध दूसरे का उपाय करें।
दूसरे में अत्यधिक अहंकार, जिद, अपने सामने किसी की न सुनना, परम्पराओं के प्रति कट्टरता, लड़कियों के प्रति निष्ठुरता, पुत्र के प्रति क्रोध और उपेक्षा, स्त्रियों से बैर, जिद में काम खराब होना आदि लक्षण प्रकट होते है।
उपाय – मंदिर में बेसन के लड्डू एवं काला जूता-सफेद धोती कुर्ता- पुजारी को दान दें। शनि की उन्गाकियों में लोहे का छल्ला पहने या कलाई में फौलादी कड़ा। रुद्राक्ष माला प्रशस्त है। ‘ॐ’ का जप करें।
शुक्रवार
पहले प्रकार में शरीर क्षीण होता है, धातुविकार, कामुकता, पेट का बढ़ना, शरीर में दर्द, पत्नी को दुःख, संचित धन की हानि, खेतीवाली जमीं का बिकना, नामर्दी, सेक्स की कमजोरी आदि उत्पन्न होते है। भूख न लगना, कब्ज, पाचन शक्ति की कमजोरी, गर्भाशय विकार, लिकोरिया, धातुपतन भी इसके लक्षण है।
उपाय – शुक्रवर्द्धक आयुर्वेदिक दवाएं प्रयुक्त करें। बरगद में पानी देकर उसकी जड़ की मिट्टी का तिलक लगायें, हीरा या पन्ना पहने; घर में कुछ फर्श कच्ची रखें या गमले में मिट्टी रखकर हल्दी का पौधा जमायें ।
दूसरे प्रकार में अत्यधिक भोजन की इच्छा; शरीर मोटा होबा; धन का आना, मगर व्यय न होना; खेत में खेती न हो पाना, अत्यधिक कामुकता, अय्याशी, पर स्त्री सम्बन्ध, पत्नी का स्थूल होना आदि है।
उपाय – प्राणायाम, व्यायाम, योगासन –करें। मुटापा नाशक दवाओं का प्रयोग करें। गरीबों को वस्त्र दान दें। छात्राओं को पुस्तक दान दें। साली को घर में न लाये।(रहने के लिए) पर स्त्री की जिम्मेदारी न उठाएं। अनाज का दान करें।
शनि – पहले प्रकार में लाल रक्त कणों की कमी, शरीर का पिला पड़ना, पीलिया, कामला, उत्साह हीनता, मानसिक दुर्बलता उत्पन्न होती है। मुकदमों में हार, खेत में अनाज का बर्बाद होना। हड्डी में दर्द, नसों में दर्द, नखों की कमजोरी, बालों का झड़ना आदि। व्यवसाय में हानि, पौरुष एवं रति शक्ति की दुर्बलता होती है। जूते टूटना, वाहन खराब होना, लोह के समान में जंग लगना।
उपाय – लोहे का कड़ा, लोहे की अंगूठी, लौह तत्वों से युक्त दवाएं, लाल कपड़ा आदि प्रयुक्त करें। भैरव जी का मंत्र जाप करें और उनके मंदिर में तेल जलायें।
दूसरे प्रकार में अत्यधिक कठोरता की उत्पत्ति, हड्डियों का बढ़ना, कड़ा होना। बालों का कड़ा होना। ढेर सारे मुकदमें लगना, शरीर में तैलीय एवं लौह तत्वों का बढ़ना, कठोरता का स्वभाव होना, आवाज कर्कश होना, सिर में चोट, नसों में तनाव, पथरी, मूत्र रोग आदि होता है।
उपाय – दूध-पानी का प्रयोग अधिक करें। लोहा-तेल दान करें। काला-नीला रंग से बचें।नीलम या लोहे की अंगूठी न पहने। ताम्बा पहनें। सूर्या नमस्कार करें। प्राणायाम करें। घर में धूप आये ऐसी व्यवस्था करें। हनुमान जी के मन्त्रों का जप करें।
राहु – इसमें पहले प्रकार में अवसाद, निराशा, चिंता, क्षोभ, भय की उत्पत्ति होती है। रात की नींद चली जाती है, बहुत नुक्सान होता है। आमदनी बाधित होती है। घर में झगडा-कलह होता है, इससे आत्महत्या करने का आवेग उत्पन्न होता है। जेलखाना, पागलखाना, बिजली का शॉक, पुलिस द्वारा यातना, हवालात, इसके गुण है। गर्भपात भी होता है। भूत-प्रेत प्राकोप होता है।
उपाय – चन्द्रमा को मजबूत कीजिये। सिर पर बेल पत्रों को पीसकर लेप लगायें। घिक्वार का गूदा 50 ग्राम प्रतिदिन चीनी के साथ खाएं। नील, जालीदार, काली और वर्दीनुमा कपड़ो से बचे। बिजली का काम न करें। सिर पर पिली या सगेद टोपी पहने। माता का आशीर्वाद लें।
दूसरे प्रकार में झगड़े करना, आक्रामक हो जाना, काम में उन्मत्त हो जाना, तरह-तरह के ख्याली पुलाव पकाना, अति उत्साहित हो जाना, छत टपकना, बाढ़ आना, घर में पानी की बर्बादी, अत्यधिक खर्चे, रक्त विकार, मानसिक रोग, होते है।
उपाय – लोगों को पानी – दूध मुफ्त पिलायें। सिर में तेल लागायें। जालीदार, नील, वर्दीवाले कपड़ों से बचे। नीलम न पहने। चन्द्रमा की वस्तुओं का दान करें। नदी-नाले में जौ बहायें।
केतु – पैर में चोट, पैरों की गड़बड़ी, वाहन खराब होना, किसी मशीन का बंद हो जाना या खराब हो जाना, पालतू कुत्ते का मरना, सन्तान पर कष्ट, आमदनी रुकना, काम में व्यवधान, कमर दर्द, रीढ़ में दर्द।
उपाय – मन्दिर में जाएँ। मंदिर में काला-सफ़ेद सूती या उनी कपड़ा दान करें। सोना पहने। खराब इलेक्ट्रॉनिक सामान बेच दें या पानी में बहायें।
दूसरे प्रकार में अत्यधिक चंचलता, लालच, भूख, कामावेग होता है।नाचने, दौड़ने का मन करता है। वाहन आउट ऑफ़ आर्डर हो जाते है। ब्रेक फेल कर सकता है ।काम तेज़ी से चलता – बंद हो जाता है।
उपाय – तेल लगायें। लोहे का कड़ा पहने। मन्दिर में जाएँ। कुत्तों को रोटी दें। कौवों को दाना खिलायें।गाय पालें और गौमूत्र सेवन करें।
विशेष सूचना – ये सामान्य लक्षण और उसके उपाय है। ज्योतिष में कारण का निदान किया जाता है। जैसे – शनि खराब हो रहा है , तो क्यों? निदान उस क्यों का किया जाता है, उपाय भी उसी का होता है; परन्तु यहाँ दिए उपाय तात्कालिक राहत प्रदान करेंगे।

Wednesday, January 2, 2019

क्यों होती है मुहुर्त में तारा बल की आवश्यकता और क्या इसका महत्व है

     

                             मुहुर्त एवं तारा बल

       मुहूर्त नक्षत्र एवं तारा बल
ऋषियों ने अपने अनुसन्धान से पाया कि जन्म नक्षत्र के सापेक्ष प्रथम 9(नवक) नक्षत्र 9 प्रकार के फल देते हैं।ज्जन्म नक्षत्र से 10वें नक्षत्र से अगले नौ नक्षत्रों में तथा पुनः 19वें नक्षत्र से अगले नौ नक्षत्रो में क्रम से उन्हीं फलों की पुनरावृत्ति होती है।अतः फलानुसार इनके नाम रखे।इस प्रकार कुल 27 नक्षत्र 9 समूहों में बंट जाते हैं और प्रत्येक समूह में कुल 3 नक्षत्र शामिल होते हैं।।इन नक्षत्र समूहों को तारा कहते हैं।इनके नाम इस प्रकार है।

जन्म सम्पद् विपत् क्षेम प्रत्यरिः साधको वधः।
मैत्रं   तथातिमैत्रं च   तारा  नामसदृक्  फलाः ।।

अर्थात् (1)जन्म,(2)सम्पत,(3)विपत,(4)क्षेम,(5)प्रत्यरि,(6)साधक,(7)बध,(8)मित्र एवं (9)अतिमित्र ये नव तारायें हैं।ये नाम समान ही फल देती हैं।
जन्म नक्षत्र को जन्म तारा भी कहते हैं।जन्म नक्षत्र से 10वें एवं 19वें नक्षत्र जहाँ से क्रमशः द्वितीय एवं तृतिय आवृत्तियां आरम्भ होती हैं उन्हें क्रमशः अनुजन्म नक्षत्र या अनुजन्म तारा और त्रिजन्म नक्षत्र या त्रिजन्म तारा भी कहते हैं।
सुगमता से समझने के लिये प्रायः इन ताराओं को एक तालिका के रूप में दर्शाया जाता है।इस तालिका को 'नव तारा चक्र' या केवल 'तारा चक्र' में जानते हैं।उदारण हेतु यदि किसी का जन्म आर्द्रा नक्षत्र में हुआ है तो उसके लिये तारा चक्र नीचे दी गई तालिका जैसा होगा।किसी भी व्यक्ति के लिये तारा समूह याद रखना अत्यंत सरल है।

नाम के अनुरूप ही ये तारायें शुभ या अशुभ फल प्रदान करती हैं,ऐसा स्वीकारा जाता है।जन्म(शारीरिक सुख या दुख) तारा कुछ कृत्यों में शुभ तथा कुछ कृत्यों हेतु इसे अशुभ मानकर नहीं ग्रहण करते ।अतः यह मध्यम है।लेकिन प्रायः इसे सामान्य रूप से अशुभ तारा नहीं माना गया है।सम्पत्(धन संपत्ति),क्षेम(स्मृद्धि),साधक(कार्य सिद्धि, महत्वाकांक्षा की पूर्ति,सफलता,साधना,अनुसंधान आदि),मित्र(मित्र या सहयोगी) तथा अतिमित्र(अत्यन्त अनुकूल मित्र या सहयोगी) सभी कृत्यों हेतु शुभ तारायें हैं।विपत(विपत्ति, हानि,खतरा,दुर्घटना आदि ), प्रत्यरि (शत्रुता, अड़चननें, बाधा आदि) तथा वध(मृत्यु,शारीरिक एवं मानसिक कष्ट,घोर असफलता आदि) सभी कृत्यों के लिये अशुभ तारायें हैं।
मुहूर्त हेतु अभिष्ट दिन शुभ या अशुभ तारा जानने का आसान तरीका निम्न श्लोक में दिया है।

दिनर्क्षसंख्या जन्मनर्क्षान्न वहृच्छेष-सम्मिताः।
तारारित्र-पञ्च-सप्तम्यो नेष्टाश्चान्यास्तु शोभनाः।।
अर्थात् जन्म नक्षत्र से इष्ट दिन तक जो संख्या हो,उसमें 9 का भाग देने से जो संख्या शेष हो उसके समान तारा होती है।उनमें3,5,7वीं तारा अशुभ तथा अन्य शुभ होती हैं।

पुष्य नक्षत्र में सभी तारायें ग्राह्य हैं। यथा-
जन्मख्यां मध्यमं प्रोक्तं नेष्टं पञ्च-त्रि-सप्तमम् ।
अन्यर्क्षं   शुभदं।   ज्ञेयं  पुष्यः  सर्वत्र   शोभनः।।
अर्थात् जन्म तारा मध्यम,3,5,7वीं अशुभ और 2,4,6,8,9वीं शुभ होती हैं।किंतु पुष्य नक्षत्र नेष्ट तारा होने पर भी ,समस्त कार्यों में शुभ होता है।
मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार-

तारा बल
मुहूर्त के समय जो नक्षत्र कार्यरत हो यदि वह जन्म नक्षत्र के सापेक्ष शुभ तारा (सम्पत्,क्षेम,साधक,मित्र या अति मित्र व कुछ मामलों में जन्म तारा) का हो तो मुहूर्त को बल प्राप्त होता है।इसी को मुहूर्त का तारा बल कहते हैं।इसके विपरीत यदि यदि मुहूर्त नक्षत्र विपत,प्रत्यरि एवं वध तारा के हों तो मुहूर्त नक्षत्र बल हीन होता है और ऐसे मुहूर्त में आरम्भ किये गये कार्य की सफलता संदिग्ध होती है।
किन्तु एक अन्य मत के अनुसार तारा का महत्व चंद्रमा से अधिक है।मान लीजिये  मृगशिरा नक्षत्र किसी का जन्म नक्षत्र है।मृगशिरा मंगल शासित नक्षत्र है।इसलिये मंगल शासित अन्य दो नक्षत्र चित्र एवं धनिष्ठा भी जन्म नक्षत्र होते हैं।इसी प्रकार से यदि यदि साधक तारा रोहिणी हो ,तो चंद्रमा शासित दो अन्य नक्षत्र हस्त और श्रवण भी साधक तारा के अंतर्गत होंगे।

कुजादिभ्यो बली सूर्यो बली सूर्याच्च चन्द्रमाः।
चंद्राद् बलवती तारा तस्मात् तारा गरीयसी।।

अर्थात् मंगल आदि ग्रहों से सूर्य बली, सूर्य से चंद्रमा बली और चंद्रमा से भी तारा बली होती है।इस कारण तारा की गरिमा है।

लेखक :- नरेश चंद्र 
मो: 9695986437

Tuesday, January 1, 2019

क्या  होते है होरा वर्ग के देवता , और होरा वर्ग इन्हें देवता क्यों बनाया होंगा


                                  होरा वर्ग और उनके देवता

होरा वर्ग के देवता
पराशर ने सूर्य की होरा में स्थित ग्रहों का देवता सूर्य को बनाया है जबकि चंद्र की होरा में स्थित ग्रहों का देव पितरों को बनाया, क्यों?कृपया अपने अपने विचार दें।

कहते हैं यदि पुरुष ग्रह सूर्य की होरा में तथा स्त्री ग्रह चंद्र की होरा में स्थित हों तो उत्तम माना जाता है।यह कुंडली में अच्छे हार्मोनल संतुलन को बताता है, क्योंकि सूर्य पुरुष हार्मोन का तथा तथा चंद्रमा स्त्री हार्मोन का कारक है।सूर्य अग्नि तत्व तथा तथा चंद्रमा जल तत्व का कारक है।अतः जीवन हेतु ये दो मुख्य तत्व ही जरूरी हैं। बाकी तत्वों का इनसे उद्भव होता है।सूर्य आत्मा के प्रतिनिधि हैं।सूर्य देव तब तक हैं, जब तक सृष्टि है और इसलिये वे आत्म के अनेक जन्मों की यात्रा के साक्षी हैं,तथा  जातक के कर्मो पर आधारित प्राप्त अगली योनि तक उसके संचित प्रवृत्तियों को स्थान्तरित करते हैं।अपने तेज से सबके जीवन को अनुशासित रखते हैं।चंद्रमा जल तत्व का होने के कारण रक्त को विशेष रूप से नियंत्रित करते हैं। इसलिये वंशानुगत गुणों को यही निर्धारित करते हैं।अतः जो ग्रह चंद्रमा की होरा में जाते हैं , वे व्यक्ति में अपने पूर्वजों से प्राप्त गुणों को प्रदान करते हैं। इसलिये इस भाग के देवता पितर(पूर्वज) हैं। होरा से धन संपदा देखते हैं। पूर्वजों से प्राप्त विशेषताएं भी संपदा हैं।सूर्य की होरा में स्थित ग्रह व्यक्ति में उन गुणों को प्रदान करते हैं जो आत्मा ने कई जन्मों की यात्र के कारण संचित किये हैं। ऐसे व्यक्ति अपने माँ,पिता,रिश्ते और  नातों पर ज्यादा निर्भर न कर आत्मा के पूर्व संचित गुणों के कारण अपने जीवन के रास्ते का स्वयं चयन करते हैं या यूं कहें कि ज्यादा आत्मविश्वास से युक्त होने के कारण अपने पर अधिक भरोसा करते हैं।इसलिये पूर्व जन्मों से प्राप्त गुण भी सम्पदा हैं।

पूरे भ-चक्र में पुरुष राशियों पर सूर्य का एवं सभी स्त्री राशियों पर चंद्रमा का अधिपत्य है। इस कारण पुरुष राशियाँ शारीरिक शक्ति का प्रतीक हैं तो स्त्री राशियाँ भावनात्मक सहयोग का कार्य करती है।दोनों का संतुलन कार्य को उसके सफल परिणाम तक ले जाता है।यदि अधिक ग्रह चंद्र की होरा में चले जायें तो व्यक्ति कठिन श्रम से जी चुराता है और खयाली पुलाव ज्यादा करता है। इसी तरह अधिक ग्रह सूर्य की होरा में चले जाएं तो व्यक्ति परिश्रम तो कर लेता है किंतु सही योजना के अभाव में कई बार सही दिशा प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हुए पाया जाता है।
........ लेखक:-  नरेश चंद्र(9695986437)

गोचर किस तरह देखना चाहिए जिससे फलित में आसानी हो अष्टकवर्ग से इसमे सूक्ष्मता कैसे आती है



                             गोचर विज्ञान


ब्रह्मांड में स्थित ग्रह अपने-अपने मार्ग पर अपनी-अपनी गति से सदैव भ्रमण करते हुए एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते रहते हैं। जन्म समय में ये ग्रह जिस राशि में पाये जाते हैं वह राशि इनकी जन्मकालीन राशि कहलाती है जो कि जन्म कुंडली का आधार है। जन्म के पश्चात् किसी भी समय वे अपनी गति से जिस राशि में भ्रमण करते हुए दिखाई देते हैं, उस राशि में उनकी स्थिति गोचर कहलाती है। वर्ष भर के समय की जानकारी गुरु और शनि से, मास की सूर्य से और प्रतिदिन की चंद्रमा के गोचर से प्राप्त की जा सकती है। वास्तविकता तो यह है कि किसी भी ग्रह का गोचर फल उस ग्रह की अन्य प्रत्येक ग्रह से स्थिति के आधार पर भी कहना चाहिए न कि केवल चंद्रमा की स्थिति से।गोचर फलादेश के सिद्धांत:

1. मनुष्य को ग्रह गोचर द्वारा ग्रहों की, मुख्यतः ग्रहों की जन्मकालीन स्थिति के अनुरूप ही अच्छा अथवा बुरा फल मिलता है। इस विषय में मंत्रेश्वर महाराज ने ‘फलदीपिका’ में लिखा है। ‘‘यद भागवो गोचरतो विलग्नात्देशश्वरः सर्वोच्च सुहृदय ग्रहस्थः तद् भाववृद्धि कुरूते तदानीं बलान्वितश्चेत प्रजननेऽपि तस्य’’ अर्थात् यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में बली होकर गोचर में भी अपनी उच्च राशि, अपनी राशि अथवा मित्र राशि में जा रहा हो तो लग्न से जिस भाव में गोचर द्वारा जा रहा होगा, उसी भाव के शुभ फल को बढ़ायेगा। इसी विषय को पुनः अशुभ फल के रूप में भी फलदीपिका कार इस प्रकार लिखते हैं। ‘‘बलोनितो जन्मनि पाकनाथौ मौढ्यं स्वनीचं रिपुमंदिरं वा। प्राप्तश्च यद भावमुपैति चारात् तदभाव नाशकुरूते तदानीम्।। अर्थात् यदि कुंडली में कोई ग्रह जिसकी दशा चल रही हो, निर्बल है, अस्त है, नीच राशि में अथवा शत्रु राशि में स्थित है तो वह ग्रह गोचर में लग्न के जिस भाव को देखेगा या जायेगा उस भाव का नाश करेगा।

2. यदि जन्मकुंडली में कोई ग्रह अशुभ भाव का स्वामी हो या अशुभ स्थान में पड़ा हो या नीच राशि अथवा नीच नवांश में हो तो वह ग्रह-गोचर में शुभ स्थान में आ जाने पर भी अपना गोचर का पूर्णअशुभ फल देगा।

3. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में शुभ हो, और गोचर में बलवान होकर शुभ स्थान में भ्रमण कर रहा हो तो उत्तम फल करता है।

4. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली के अनुसार शुभ हो, गोचर में भी शुभ भाव में होकर नीच आदि प्रकार से अधम हो तो कम शुभ फल करता है।

5. यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में अशुभ हो और गोचर में शुभ भाव में हो, परंतु नीच, शत्रु आदि राशि में हो तो बहुत कम शुभ फल करेगा, अधिकांश अशुभ फल ही प्रदान करेगा।

6. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में अशुभ है और गोचर में भी अशुभ भाव में अशुभ राशि आदि में स्थित है तो वह अत्यंत अशुभ फल प्रदान करेगा। 7. जब ग्रह गोचरवश शुभ स्थान से जा रहा हो और जन्मकुंडली में स्थित दूसरे शुभ ग्रहों से अंशात्मक दृष्टि योग कर रहा हो तो विशेष शुभ फल प्रदान करता है।

8. गोचर में जब ग्रह मार्गी से वक्री होता है अथवा वक्री से मार्गी होता है तब विशेष प्रभाव दिखलाता है।

9. जब गोचर में कोई ग्रह अग्रिम राशि में चला जाता है और कुछ समय के लिए वक्री होकर पिछली राशि में आ जाता है तब भी वह आगे की राशि का फल प्रदान करता है।10. सूर्य और चंद्रमा का गोचर फल: जिस जातक के जन्म नक्षत्र पर सूर्य या चंद्र ग्रहण पड़ता है तो उस व्यक्ति के स्वास्थ्य आयु आदि के लिए बहुत अशुभ होता है। इस संबंध में ‘मुहूर्त’ चिंतामणि’ का निम्नलिखित श्लोक इस प्रकार है- ‘‘जन्मक्र्षे निधने ग्रहे जन्मतोघातः क्षति श्रीव्र्यथा, चिन्ता सौख्यकलत्रादौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम्। लाभोऽपाय इति क्रमातदशुभ्यध्वस्त्यै जपः स्वर्ण, गोदानं शान्तिस्थो ग्रहं त्वशुभदं नोवीक्ष्यमाहुवरे।।’’ अर्थात जिस व्यक्ति के जन्म नक्षत्र पर ग्रहण पड़ा हो उसकी सूर्य चंद्र के द्वारा जन्म नक्षत्र पर गोचर भ्रमण के समय मृत्यु हो सकती है। यही फल जन्म राशि पर ग्रहण लगने से कहा है। जन्म राशि से द्वितीय भाव में ग्रहण पड़े तो धन की हानि, तृतीय में पड़े तो धन की प्राप्ति होती है, पांचवे तो चिंता, छठे पड़े तो सुखप्रद होता है। सातवें पड़े तो स्त्री से पृथकता हो या उसका अनिष्ट हो, आठवें पड़े तो रोग हो, नवें पड़े तो मानहानि, दशम में पड़े तो कार्यों में सिद्धि, एकादश पड़े तो विविध प्रकार से लाभ और बारहवें पड़े तो अधिक व्यय तथा धन नाश होता है।

11. यदि वर्ष का फल अशुभ हो अर्थात् शनि, गुरु और राहु गोचर में अशुभ हों और मास का फल उत्तम हो तो उस मास में शुभ फल बहुत ही कम आता है।

12. यदि वर्ष और मास दोनों का फल शुभ हो तो उस मास में अवश्य अतीव शुभ फल मिलता है। 13. ग्रहों का गोचर में शुभ अशुभ फल जो उनके चंद्र राशि में भिन्न भावों में आने पर कहा है उसमें बहुत बार कमी आ जाती है। उस कमी का कारण ‘वेध’ भी होता है। जब कोई ग्रह किसी भाव में गोचरवश चल रहा हो तो उस भाव से अन्यत्र एक ऐसा भाव भी होता है जहां कोई अन्य ग्रह स्थित है तो पहले ग्रह का ‘वेध’ हो जाता है अर्थात् उसका शुभ अथवा अशुभ फल नहीं हो पाता। जैसे सूर्य चंद्र लग्न से जब तीसरे भाव में आता है, तो वह शुभ फल करता है, परंतु यदि गोचर में ही चंद्र लग्न से नवम् भाव में कोई ग्रह बैठा हो तो फिर सूर्य की तृतीय स्थिति का फल रुक जायेगा, क्योंकि तृतीय स्थित सूर्य के लिए नवम वेध स्थान है। इसी प्रकार चंद्रमा जब गोचर में चंद्र लग्न से पंचम भाव में स्थित हो तो कोई ग्रह यदि चंद्र लग्न से छठे भाव में आ जाय तो पंचम चंद्र का वेध हो जायेगा। इसी प्रकार अन्य ग्रहों का भी वेध द्वारा फल का रुक जाना समझ लेना चाहिए। सूर्य तथा शनि पिता पुत्र हैं। इसलिए इनमें परस्पर वेध नहीं होता है। इसी प्रकार चंद्र बुध माता पुत्र है। अतः चंद्र और बुध में भी परस्पर वेध नहीं होता। वेध को समझने के लिए एक तालिका बनाई गई है, जिसमें नौ ग्रहों के चंद्र लग्न से विविध भावों पर आने से कहां-कहां वेध होना है दर्शाया गया है। इस तालिका में अंकों से तात्पर्य भाव से है जो कि चंद्र लग्न से गिनी जाती है। उदाहरण: जैसे सूर्य तृतीय भाव में हो तो नवम भाव स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको वेध करेगा। यदि चतुर्थ भाव में हो तो तृतीय भाव में स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसका वेध करेगा। यदि पंचम भाव में हो तो छठे भाव में स्थित कोई भी ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको वेध करेगा इत्यादि।

14. मुहूर्त चिंतामणि में कहा गया है कि ‘‘दुष्टोऽपि खेटो विपरीतवेधाच्छुभो द्विकोणेशुभदः सितेऽब्जः ।।’’ अर्थात कोई ग्रह यदि गोचर में दुष्ट है, अर्थात जन्म राशि में अशुभ स्थानों में स्थित होने के कारण अशुभ फलदाता है और फिर वेध में आ गया है तो वह शुभफल दाता हो जाता है। दूसरे शब्दों में वेध का प्रभाव नाशात्मक है। यदि अशुभता का नाश होता है तो शुभता की प्राप्ति स्वतः सिद्ध होती है। 15. गोचर में चल रहे ग्रहों के फल के तारतम्य के सिलसिले में स्मरणीय है, वह यह है कि फल बहुत अंशों में ग्रह अष्टक वर्ग पर निर्भर करता है। अपने अष्टक वर्ग में उसे उस स्थान में चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो उस ग्रह की अशुभता कुछ दूर हो जायेगी। यदि उसे चार से कम रेखा मिलती हैं तो जितनी-जितनी कम रेखा होती जायेंगी उतनी ही फल में अशुभता बढ़ती जायेगी। यदि उसे कोई रेखा प्राप्त नहीं हो तो फल बहुत ही अशुभ होगा। यदि गोचरवश शुभ ग्रह को चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो स्पष्ट है तो जितनी-जितनी अधिक रेखा होंगी, उतना ही फल उत्तम होता जायेगा। नोट: अष्टक वर्ग में रेखा को शुभ फल मानते है तथा बिंदु को अशुभ। दक्षिण भारत में बिंदु को शुभ एवं रेखा को अशुभ मानते हैं। महर्षि पराशर नें रेखा को शुभ एवं बिंदु को अशुभ के रूप में अंकित करने की सलाह दी है। इसीलिये यहां रेखा को शुभ के रूप में अंकित है।16. गोचर में ग्रह कब फल देते हैं- ग्रहों की जातक विचार में जो फल प्रदान करने की विधि है वही गोचर में भी है। फलदीपिकाकार मंत्रेश्वर महाराज ने लिखा है। ‘‘क्षितितनय पतंगो राशि पूर्व त्रिभागे सुरपति गुरुशुक्रौ राशि मध्य त्रिभागे तुहिन किरणमन्दौराशि पाश्चात्य भागे शशितनय भुजड्गौ पाकदौ सार्वकालम्।।’’ अर्थात सूर्य तथा मंगल गोचर वश जब किसी राशि में प्रवेश करते हैं तो तत्काल ही अपना प्रभाव दिखलाते हंै। एक राशि में 30 अंश होते हैं, इसलिए सूर्य और मंगल 0 डिग्री से 10 डिग्री तक ही विशेष प्रभाव करते हैं। गुरु और शुक्र मध्य भाग में अर्थात 10 अंश से 20 अंश विशेष शुभ तथा अशुभ प्रभाव दिखलाते हैं। चंद्रमा और शनि, राशि के अंतिम भाग अर्थात 29 अंश से 30 अंश तक विशेष प्रभावशाली रहते हैं। बुध तथा राहु सारी राशि में अर्थात् 0 अंश से 30 अंश तक सर्वत्र एक सा फल दिखाते हैं।

17. ग्रहों के गोचर में फलप्रदान करने के विषय में ‘काल प्रकाशिका’ नामक पुस्तक में थोड़ा सा मतभेद चंद्र और राहु के विषय में है। उसमें कहा गया है। ‘‘सूर्योदौ फलदावादौ गुरुशुक्रौ मध्यगौ मंदाही फलदावन्तये बुधचन्द्रौ तु सर्वदा। अर्थात सूर्य तथा मंगल राशि के प्रारंभ में, गुरु, शुक्र मध्य में, शनि और राहु अंत में तथा बुध और चंद्रमा सब समय में फल देते हैं।

 जन्म कालीन ग्रहों पर से गोचर ग्रहों के भ्रमण का फल:

1. जन्मकालिक ग्रहों से सूर्य का गोचर फल: जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान (जन्म कुंडली) से गोचर के सूर्य का गोचर व्यक्ति को कष्ट देता है। धन लाभ तो होता है किंतु टिकता नहीं, व्यवसाय भी ठीक नहीं चलता। शरीर अस्वस्थ रहता है। यदि दशा, अंतर्दशा भी अशुभ हो तो पिता की मृत्यु हो सकती है। इस अवधि में जातक का अपने पिता से संबंध ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ चंद्रमा पर से या इससे सातवें स्थान में गुजरता हुआ सूर्य शुभ फल प्रदान करता है। यदि सूर्य कुंडली में अशुभ स्थान का स्वामी हो तो मानसिक कष्ट, अस्वस्थता होती है। यदि सूर्य शुभ स्थान का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। जन्मस्थ मंगल पर से या इससे सातवें स्थान में गोचर रवि का प्रस्थान प्रायः अशुभ फल देता है। यदि कुंडली में मंगल बहुत शुभ हो तो अच्छा फल मिलता है। जन्मस्थ बुध से या उसके सातवें स्थान से सूर्य गुजरता है तो सामान्य तथा शुभ फल करता है परंतु संबंधियों से वैमनस्य की संभावना रहती है। जन्मस्थ गुरु पर से या उसके सातवें स्थान से गोचर का सूर्य शुभ फल नहीं देेता है। इस अवधि में उन्नति की संभावना कम रहती है। जन्मस्थ शुक्र पर से या उससे सातवें स्थान से सूर्य भ्रमण करने पर स्त्री सुख नहीं मिलता। स्त्री बीमार रहती है। व्यय होता है। राज्य की ओर से कष्ट होता है। जन्मस्थ शनि से या उससे सप्तम स्थान पर गोचर का सूर्य कष्ट देता है।

2. जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल: जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल जन्मस्थ चंद्र के पक्षबल पर निर्भर करता है। यदि पक्षबल में बली हो तो शुभ अन्यथा क्षीण होने पर अशुभ फल देता है। जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर के चंद्रमा का शुभ प्रभाव जन्मस्थ चंद्र के शुभ होने पर निर्भर है। चंद्रमा स्वास्थ्य की हानि, धन की कमी, असफलता तथा आंख में कष्ट देता है। जन्मस्थ गुरु पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर का चंद्रमा बली हो तो स्त्री सुख देता है। ऐशो आराम के साधन जुट जाते हैं, धन का लाभ होता है लेकिन जन्मकालीन चंद्रमा क्षीण हो तो इसके विपरीत अशुभ फल मिलता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सप्तम स्थान पर से जब गोचर का चंद्रमा गुजरता है तो धन मिलता है लेकिन निर्बल हो तो मनुष्य को व्यापार में घाटा होता है।3. जन्मकालिक ग्रहों से मंगल का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा उससे दसवें स्थान पर से गोचर का मंगल जब जाता है तब उस अवधि में रोग होता है। खर्च बढ़ता है। व्यवसाय में बाधा आती है और नौकरी में भी वरिष्ठ पदाधिकारी नाराज हो जाते हैं। आंखों में कष्ट होता है तथा पेट के आॅपरेशन की संभावना रहती है। पिता को कष्ट होता है। जन्म के चंद्रमा पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान पर गोचरवश जब मंगल आता है तो शारीरिक चोट की संभावना रहती है। क्रोध आता है। भाईयों द्वारा कष्ट होता है। धन का नाश होता है। यदि जन्म कुंडली में मंगल बली हो तो धन लाभ होता है। राजयोग कारक हो तो भी धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है और जन्मकुंडली में मंगल दूसरे, चैथे, पांचवे, सातवें, आठवें अथवा बारहवें स्थान में हो और विशेष बलवान न हो तो धन हानि, कर्ज, नौकरी छूटना, बल में कमी, भाइयों से कष्ट व झगड़ा होता है तथा शरीर में रोग होता है। जन्मस्थ बुध पर अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से जब मंगल भ्रमण करता है तो अशुभ फल मिलता है। बड़े व्यापारियों के दो नंबर के खाते पकड़े जाते हैं। झूठी गवाही या जाली हस्ताक्षर के मुकदमे चलते हैं। धन हानि होती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है तो लाभ होता है। लेकिन संतान को कष्ट होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल भ्रमण करता है तो कामवासना तीव्र होती है। वैश्या इत्यादि से यौन रोग की संभावना रहती है। आंखों में कष्ट तथा पत्नी को कष्ट होता है। पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से मंगल गुजरता है और यदि जन्मकुंडली में शनि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, अष्टम, नवम अथवा द्वादश भाव में शत्रु राशि में स्थित हो तो उस गोचर काल में बहुत दुख और कष्ट होते हैं। भूमि व्यवसाय से या अन्य व्यापार से हानि होती है। मुकदमा खड़ा हो जाता है। स्त्री वर्ग एवं निम्न स्तर के व्यक्तियों से हानि होती है। यदि जन्मकुंडली में शनि एवं मंगल दोनों की शुभ स्थिति हो तो विशेष हानि नहीं होती है। लेकिन मानसिक तनाव बना रहता है।

4. जन्मकालिक ग्रहों से बुध का गोचर फल: बुध के संबंध में यह मौलिक नियम है कि यदि बुध शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो शुभ एवं पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो पाप फल करता है। इसलिए गोचर के बुध का फल उस ग्रह के फल के अनुरूप होता है जिससे या जिनसे जन्मकुंडली में बुध अधिक प्रभावित है। यदि बुध पर सूर्य मंगल, शनि यदि नैसर्गिक पापी ग्रहों का प्रभाव शुभ ग्रहों के अपेक्षा अधिक हो तो ऊपर दिये गये सूर्य, मंगल, शनि आदि ग्रहों के गोचर फल जैसा फल करेगा। विपरीत रूप से यदि जन्मकुंडली में बुध पर प्रबल प्रभाव, चंद्र, गुरु अथवा शुक्र का हो तो इन ग्रहों के गोचर फल जैसा फल भी देगा।

5. जन्मकालिक ग्रहों से गुरु का गोचर फल: जन्मकालिक सूर्य से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जाता हुआ गुरु यदि चंद्र लग्न के स्वामी का मित्र है तो गुरु बहुत अच्छा फल प्रदान करता है। यदि गुरु साधारण बली है तो साधारण फल होगा। यदि गुरु, चंद्र लग्नेश का शत्रु अथवा शनि, राहू अधिष्ठित राशि का भी स्वामी हो तो खराब फल करेगा। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से जाता हुआ गुरु अशुभ फल करता है। यदि जन्मकुंडली में चंद्रमा 2, 3, 6, 7, 10 और 11 राशि में हो और गुरु शनि अथवा राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो ऐसा गोचर का गुरु रोग देता है। माता से वियोग करता है। धन का नाश एवं व्यवसाय में हानि होती है। कर्ज के कारण मानसिक परेशानी होती है तथा घर से दूर भी कराता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव से गुजरता हुआ गुरु प्रायः शुभ फल देता है। यदि कुंडली में गुरु राहु या शनि अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो खराब फल मिलता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव में, आया हुआ गोचर का गुरु निम्न प्रकार से फल प्रदान करता है। (क) यदि बुध अकेला हो और किसी ग्रह के प्रभाव में न हो तो शुभ फल मिलता है । (ख) यदि बुध पर गुरु के मित्र ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर के गुरु का वही फल होगा जो उन-उन ग्रहों पर गुरु की शुभ दृष्टि का होता है अर्थात शुभ फल प्राप्त होगा। (ग) यदि बुध पर गुरु के शत्रु ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर का गुरु अनिष्ट फल देगा। विशेषतया उस समय जब कि जन्म कुंडली में गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो और बुध पर दैवी श्रेणी के ग्रहों का प्रभाव हो।(घ) यदि बुध अधिकांशतः आसुरी श्रेणी के ग्रहों से प्रभावित हो तथा गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो गुरु के गोचर में कुछ हद तक शुभता आ सकती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में गोचरवश आया हुआ गुरु शुभ फल नहीं देता है। यदि यह जन्मकुंडली में 3, 6, 8 अथवा 12 भावों में शत्रु राशि में स्थित हो या पाप युक्त, पाप दृष्ट हो या शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो, ऐसी स्थिति में वह खराब फल देता है। यदि गुरु जन्म समय में बलवान हो तो शुभ फल होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में जब गोचर वश गुरु आता है तो शुभ फल देता है, यदि शुक्र जन्म कुंडली में बली हो अर्थात् द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो। यदि शुक्र जन्मकुंडली में अन्यत्र हो और गुरु भी पाप दृष्ट, पापयुक्त हो तो गोचर का गुरु खराब फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जब गुरु आता है तो शुभफल करता है। यदि शनि जन्मकुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सप्तम अष्टम, दशम अथवा एकादश भावों में हो तो डूबा हुआ धन मिलता है तथा लाभ होता है यदि शनि अन्यत्र हो और पराशरीय नियमों के अनुसार अशुभ आधिपत्य भी हो तो गोचर का गुरु कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता है बल्कि हानिप्रद ही सिद्ध होता है।

6. जन्मकालिक ग्रहों से शुक्र का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा इससे सप्तम स्थान में गोचरवश जाता हुआ शुक्र लाभप्रद होता है। यदि शुक्र का आधिपत्य अशुभ हो तो व्यसनों में समय बीतता है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र मन में विलासिता उत्पन्न करता है। वाहन का सुख मिलता है। धन की वृद्धि तथा स्त्री वर्ग से लाभ होता है। चंद्र यदि निर्बल हो तो अल्प मात्रा मंे लाभ मिलता है। जन्मस्थ मंगल पर से या उससे सप्तम भाव में गोचरवश आया हुआ शुक्र बल वृद्धि करता है, कामवासना में वृद्धि करता है, भाई के सुख को बढ़ाता है तथा भूमि से लाभ होता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा उससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र विद्या लाभ देता है। सभी से प्यार मिलता है। स्त्री वर्ग से तथा व्यापार से लाभ होता है। यह फल तब तक मिलता है जब बुध अकेला हो। यदि बुध किसी ग्रह विशेष से प्रभावित हो तो गोचर का फल उस ग्रह पर से शुक्र के संचार जैसा होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें भाव में गोचरवश जब शुक्र आता है जो सज्जनों से संपर्क बढ़ता है, विद्या में वृद्धि होती है। पुत्र से धन मिलता है, राजकृपा होती है, सुख बढ़ता है। यदि शुक्र निर्बल हो और शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो फल विपरीत होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम भाव से जब शुक्र गुजरता है तो विलासिता की वस्तुओं में और स्त्रियों से संपर्क में वृद्धि करता है। तरल पदार्थों से लाभ देता है। स्त्री सुख में वृद्धि करता है तथा व्यापार में वृद्धि करता है। कमजोर शुक्र कम फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश जब शुक्र आता है तो मित्रों की वृद्धि, भूमि आदि की प्राप्ति, स्त्री वर्ग से लाभ, नौकरी की प्राप्ति होती है। कमजोर शुक्र कम फल प्रदान करता है।

7. जन्मकालिक ग्रहों से शनि का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचरीय शनि आता है तो नौकरी छूटने की संभावनाएं रहती है, पेट में रोग तथा पिता को परेशानी होती है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में शनि भ्रमण करता है तब धन हानि, मानसिक तनाव होता है तथा रोग होता है। यदि चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी की हो तो मिश्रित फल मिलता है तथा आर्थिक लाभ भी हो सकता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश यदि शनि जाए तो शत्रुओं से पाला पड़ता है, स्वभाव में क्रूरता बढ़ती है तथा भाईयों से अनबन रहती है। राज्य से परेशानी है। रक्त विकार एवं मांसपेशियों में कष्ट होता है। बवासीर हो सकता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचर वश शनि जाता है तो बुद्धि का नाश, विद्या हानि, संबंधियों से वियोग व्यापार में हानि, मामा से अनबन एवं अंतड़ियों में रोग होता है। यदि बुध आसुरी श्रेणी का हो तो धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से जब गोचरवश शनि जाता है तब कर्मचारियों की ओर से विरोध, धन में कमी पुत्र से अनबन अथवा वियोग होता है। सुख में कमी आती है। जिगर के रोग होते हैं। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम स्थान से, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से गोचरवश शनि पत्नी से वैमनस्य कराता है। यदि शुक्र जन्म कुंडली में राहु, शनि आदि से पीड़ित हो तो तलाक भी करवा सकता है। प्रायः धन औरऔर सुख में कमी लाता है। सिवाय इसके जबकि जन्म लग्न आसुरी श्रेणी का हो। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थभाव में जब गोचर वश शनि भ्रमण करता है तो निम्न वर्ग के लोगों से हानि, भूमि, नाश, टांगों में दर्द तथा कई प्रकार के दुख होते हैं। यदि लग्न तथा चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी के हो तो धन, पदवी आदि सभी बातों में सुख मिलता है।

8. जन्मकालिक ग्रहों से राहु/केतु का गोचर फल: राहु और केतु छाया ग्रह है। इसका भौतिक अस्तित्व नहीं। यही कारण है कि इनको गोचर पद्धति में सम्मिलित नहीं किया गया है तो भी ज्योतिष की प्रसिद्ध लोकोक्ति है। शनिवत राहू कुजावत केतु अतः गोचर में राहू शनि जैसा तथा केतु मंगल जैसा ही फल करता है। यह स्मरणीय है कि राहु और केतु का गोचर मानसिक विकृति द्वारा ही शरीर, स्वास्थ्य तथा जीवन के लिए अनिष्टकारक होता है, विशेषतया जबकि जन्मकुंडली में भी राहु, केतु पर शनि, मंगल तथा सूर्य का प्रभाव हो, क्योंकि ये छाया ग्रह राहु जहां भी प्रभाव डालते हैं वहां न केवल अपना बल्कि इन पाप एवं क्रूर ग्रहों का भी प्रभाव साथ-साथ डालते हैं। राहु और केतु की पूर्ण दृष्टि नवम एवं पंचम पर भी (गुरु की भांति) रहती है। अतः गोचर में इन ग्रहों का प्रभाव और फल देखते समय यह देख लेना चाहिए कि ये अपनी पंचम और नवम, अतिरिक्त दृष्टि से किस-किस ग्रह को पीड़ित कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि सदा ही राहु तथा केतु का गोचरफल अनिष्टकारी होता है। कुछ एक स्थितियों में यह प्रभाव सट्टा, लाॅटरी, घुड़दौड़ आदि द्वारा तथा ग्ग्ग्ग्ग्अन्यथा भी अचानक बहुत लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। वह तब, जब, कुंडली में राहु अथवा केतु शुभ तथा योगकारक ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हों और गोचर में ऐसे ग्रह पर से भ्रमण कर रहे हों जो स्वयं शुभ तथा योग कारक हों। उदाहरण के लिए यदि योगकारक चंद्रमा तुला लग्न में हो और राहु पर जन्मकुंडली में शनि की युति अथवा दृष्टि हो तो गोचर वश राहु यदि बुध अथवा शुक्र अथवा शनि पर अपनी सप्तम, पंचम अथवा नवम दृष्टि डाल रहा हो तो राहु के गोचर काल में धन का विशेष लाभ होता है, यद्यपि राहु नैसर्गिक पाप ग्रह है। अष्टक वर्ग से गोचर का फल: गोचर के फलित का अष्टक वर्ग के फलित से तालमेल बैठाने की प्रक्रिया में निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिये।

1. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि से संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग की 30 से अधिक रेखाएं हों तो गोचर में चंद्र से अशुभ स्थिति में होने के बावजूद उस भाव-राशि से संबंधित कार्य कलापों और विषयों के संदर्भ में वह ग्रह शुभ फल प्रदान करता है।
2. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि में संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से कम रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग में 30 से कम रेखाएं हों तो भले ही वह ग्रह चंद्र से शुभ स्थानों में गोचर कर रहा हो, अशुभ फल ही देता है। ऐसी स्थिति में यदि उक्त ग्रह के संचरण वाली राशि चंद्र से अशुभ स्थान पर हो तो अशुभ फल काफी अधिक मिलते हैं।
3. ग्रह अष्टक वर्ग में भी शुभ हों और कुंडली में उपचय स्थान (3, 6, 10वें तथा 11 वें स्थान) में निज राशि में या मित्र की राशि में या अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो बहुत शुभ फल देते हैं और यदि अनुपचय स्थान में नीच अथवा शत्रु राशि में हो और गोचर में भी अशुभ हो तो अधिक अशुभ फल देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अष्टक वर्ग से ग्रह का उतार-चढ़ाव देखा जाता है।
4. यदि किसी भाव को कोई रेखा न मिले तो उस भाव से गोचर फल अत्यंत कष्टकारी होता है। चार रेखा प्राप्त हो तो मिश्रित फल अर्थात मध्यमफल मिलता है। 5 रेखा मिलने पर फल अच्छा होता है। 6 रेखा मिले तो बहुत अच्छा, 7 रेखा मिले तो उत्तम फल और 8 में से 8 रेखा मिल जाये तो सर्वोत्तम फल कहना चाहिए।
5. जातक परिजात में अष्टकवर्ग को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। जो ग्रह उच्च, मित्र राशि अथवा केंद्र (1, 4, 7, 10) कोण (5, 9), उपचय (3, 6, 10, 11) में स्थित है, जो शुभ वर्ग में है। बलवान है तो भी यदि अष्टक वर्ग में कोई रेखा नहीं पाता है तो फल का नाश करने वाला ही होता है और यदि कोई ग्रह पापी, नीच या शत्रु ग्रह के वर्ग में हो अथवा गुलिक राशि के स्वामी हो, परंतु अष्टक वर्ग में 5, 6, 7 अथवा 8 रेखा पाता है तो यह ग्रह उत्तम फल देता है।
6. सारावली ने अष्टकवर्ग के संबंध में जो सम्मति दी है, हम समझते हैं कि वह अधिक युक्तिसंगत है। सारावली में कहा गया है। ‘‘इत्युक्तं शुभ मन्यदेवमशुभं चारक्रमेण ग्रहाः’’ शक्ताशक्त विशेषितं विद्धति प्रोत्कृष्टमेतत्फलम्। स्वार्थी स्वोच्च्सुहृदगृहेषु सुतरां शस्तं त्वनिष्टसमम् नीचाराति गता ह्यानिष्ट बहुलं शक्तं न सम्यक् फलम्।अर्थात इस प्रकार गोचरवश ये ग्रह शुभ अथवा अशुभ फल करते हैं। अष्टकवर्ग द्वारा ग्रह अच्छा, बुरा अथवा सम फल देते हैं। परंतु ग्रह उच्च राशि अथवा स्वक्षेत्र में होकर भी यदि अष्टकवर्ग में अशुभ हो अर्थात कम रेखा प्राप्त हों, तो बुरा फल देते हैं। 4. कोई ग्रह किसी राशि विशेष में कब-कब अपना शुभ या अशुभ फल दिखलाएगा? इसके लिए प्रत्येक राशि को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। एक राशि के 30 अंशों को आठ बराबर भाग में बांटने पर मान 3 अंश 45 कला के बराबर होता है। इन अष्टमांशों को कक्षाक्रम से ही ग्रहों को अधिपत्य दिया गया है तथा वे तदनुसार ही फल देते हैं। माना किसी व्यक्ति को शनि योगकारक उत्तमफल दायक है। अब शनि जब-जब अधिक रेखा युक्त राशि में गोचर करेगा तो उसे अच्छा फल मिलेगा। यह एक सामान्य नियम है। शनि एक राशि में 2 वर्ष 6 माह तक रहेगा। तो क्या पूरे समय में व्यक्ति को शुभ या अशुभ फल मिलता रहेगा या किसी विशेष भाग में? इसका उत्तर हमें गोचराष्टक वर्ग से मिलेगा। आचार्यों ने राशि को आठ बराबर भागों में बांटा है। उन आठ भागों को कक्षा क्रम से आठो वर्गाधिपति कहते हैं। अब देखना है कि अपने भिन्नाष्टक वर्ग में किस राशि में शनि को किस ग्रह ने रेखायें दी थी।
यह पोस्ट बड़ी अच्छे विद्वान ने लिखी है मुझे पसंद आई इसलिए शेयर कर रहा इतना अच्छा ज्ञान हमारे साथ बाटने के लिए उनका धन्यवाद करने के लिए मेरे पास शब्द नही है